मकर संक्रांति के अगले दिन कुमाऊं में‘काले कौवा काले, घुघुती की माला खा ले’ गाकर बच्चे कौवों को बुलाते हैं लेकिन अब आह्वान के बावजूद यह पक्षी कम ही आता है। ऐसे में पक्षी विशेषज्ञों को चिंता है कि कहीं इनका जीवन खतरे में तो नहीं है। एक दौर था जब इस दिन कौवे पकवान खाने अवश्य आते थे, लेकिन पिछले कुछ सालों से कौवे दिखाई नहीं दे रहे हैं। जंगल कटान, शहरीकरण, कीटनाशकों का उपयोग, बदलती जलवायु और फैलता प्रदूषण इनके कम होने की वजह मानी जा रही है।विशेषज्ञों ने चिंता जताई है कि अगर इनके संरक्षण के लिए प्रयास नहीं किए गए तो ये पक्षी भी कहानियों में रह जाएंगे। उनका कहना है कि लोगों को इनके प्रति जागरूक करना, पौधरोपण बढ़ाना और जैव विविधता को संरक्षित करना अत्यंत आवश्यक है।
कम दिखने के कारण
जंगलों की कटाई और शहरीकरण से कौओं के प्राकृतिक आवासों का खत्म होना।
प्रदूषण और रसायनिक खादों के बढ़ते उपयोग से पक्षियों के स्वास्थ्य पर बुरा असर।
मोबाइल टावरों से निकलने वाली तरंगें और जलवायु परिवर्तन भी एक कारण।
संरक्षण के उपाय
लोगों को जैव विविधता के महत्व के बारे में शिक्षित करना।
कौवों के लिए सुरक्षित आवास उपलब्ध कराना।
पर्यावरण अनुकूल खेती को बढ़ावा देना।
मैंने पक्षी संरक्षण के तहत काम किया है और पाया है कि बढ़ते प्रदूषण, रासायनिक दवाओं के उपयोग और आधुनिक तकनीक, जैसे मोबाइल टावर से निकलने वाली तरंगें, कौवों की संख्या में लगातार गिरावट का कारण बन रही हैं। ये गंभीर चिंता का विषय है। -लोचन बिष्ट, पक्षी विशेषज्ञ/पर्यावरणविद
पर्वतीय क्षेत्रों में मकर संक्रांति और घुघुतिया त्योहार कौवों से जुड़ा पर्व है। घुघुतिया त्यार में कौवों का आह्वान किया जाता है, लेकिन हाल के वर्षों में इनकी घटती संख्या इन परंपराओं को अधूरा बना रही है। -पंडित उमाशंकर पंत पुजारी नीलकंठ महादेव मंदिर रानीखेत