दून घाटी में बहने वाली जल धाराओं से यहां के सदाबहार जंगल खूब पनपते रहे। यहां की जमीन उर्वरा होकर समृद्ध होती गई और भूमिगत जल स्तर भी काफी अच्छा बना रहा। इन्हीं विशेषताओं के कारण अंग्रेज शासनकाल में यहां खूब नहरें बनीं और इनका पानी खेती में उपयोग किया गया। यह बात दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र की ओर से नदियों को जानो विषय पर आयोजित कार्यक्रम में भारत ज्ञान विज्ञान समिति उत्तराखंड के अध्यक्ष विजय भट्ट ने कही। इस दौरान सामाजिक चिंतक इंद्रेश नौटियाल ने भी नदियों के बारे में स्लाइड चित्रों और वार्ता के माध्यम से जानकारी दी। विजय भट्ट ने कहा कि दून घाटी में नहरें बनने से किसानों की आय में भी वृद्धि हुई। यहां का बासमती चावल, चाय व लीची ने दुनिया भर में प्रसिद्धि हासिल की। लेकिन वर्तमान में दून घाटी में अनियंत्रित तरीके से बढ़ती आबादी के साथ तथाकथित विकास के नाम पर चलने वाली अवैज्ञानिक योजनाओं व बढ़ते शहरीकरण चिंता बने हैं। जिससे यहां की नदियों अब गंदे नाले में तब्दील हो गई हैं।
विजय भट्ट ने कहा कि इस घाटी का निर्माण दो चरणों में हुआ। पहले चरण में उत्तरी क्षेत्र में मसूरी रेंज और दूसरे चरण में दक्षिणी भाग में शिवालिक शृंखला बनीं। इस प्रक्रिया में लोअर हिमालयी क्षेत्र से आने वाली तलछट धीरे धीरे बीच के भाग में एकत्र होने लगी और इसके ही परिणाम से बीच में गहरी कटोरेनुमा घाटी का निर्माण हुआ, जो दून घाटी के नाम से जानी गई। कहा कि दून घाटी में दो पनढाल हैं। यहां का जल प्रवाह दो विपरीत दिशाओं पूर्व और पश्चिम दिशा की तरफ बहता है। आशारोड़ी क्लेमेंटटाउन की सड़क में बरसाती पानी भी दो दिशाओं की ओर बहता है। पूरब दिशा का जल सुसवा नदी से होते हुए गंगा में और पश्चिम का पानी आसन नदी के जरिये यमुना नदी में मिल जाता हैं। दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के प्रोग्राम एसोसिएट चंद्रशेखर तिवारी ने लोगों का स्वागत किया। इस मौके पर केंद्र के कार्यक्रम सलाहकार निकोलस, विद्या भूषण रावत, जनकवि अतुल शर्मा, बिजू नेगी, कमलेश खंतवाल, डॉ. मालविका चौहान, डॉ. रवि चोपड़ा, डॉ. नंद नंदन पांडे आदि मौजूद रहेे।