
लेखक: श्याम सिंह ‘पंवार’
प्रकाशन तिथि: 28 मई 2025
सनातन धर्म केवल एक धार्मिक व्यवस्था नहीं, बल्कि एक संपूर्ण जीवन दर्शन है जिसमें संस्कृति, परंपरा, आचार-विचार और आत्मिक चेतना का अद्भुत समन्वय है। इसमें निहित हर प्रतीक – चाहे वह सिंदूर हो, मंगलसूत्र हो या विवाह-संस्कार – जीवन की गरिमा और मर्यादा को दर्शाता है। ऐसे में, जब कोई अभियान “घर-घर सिंदूर” जैसे नारों के साथ सामने आता है, तो यह जरूरी हो जाता है कि हम उससे जुड़े सवाल उठाएँ।
नई दिल्ली:
देश की राजनीति में इन दिनों एक नया नारा चर्चा का विषय बना हुआ है – “घर-घर सिंदूर”। यह नारा सुनने में भले ही सनातन संस्कृति की झलक देता हो, लेकिन इसके पीछे की मंशा और परिणामों को लेकर गहरी चिंता और बहस छिड़ गई है। क्या यह सचमुच धर्म और संस्कृति को सशक्त करने का प्रयास है, या फिर एक बार फिर हमारी पवित्र परंपराओं को राजनीतिक लाभ के लिए मोहरा बनाया जा रहा है?
सिंदूर: श्रद्धा का प्रतीक या राजनीतिक वस्तु?
सनातन परंपरा में सिंदूर एक विवाहित स्त्री की पवित्रता, समर्पण और वैवाहिक निष्ठा का प्रतीक माना जाता है। यह सिर्फ एक लाल रंग नहीं, बल्कि उस विश्वास की छाया है जो पति-पत्नी के रिश्ते को आध्यात्मिक धरातल पर जोड़ता है। लेकिन जब इसे “घर-घर” बाँटने की बात की जाती है, तो सवाल उठता है – क्या हम इस प्रतीक की गरिमा को खो नहीं रहे?
किसी भी धार्मिक प्रतीक को जब चुनावी मंचों पर प्रचार का उपकरण बना दिया जाता है, तो वह केवल एक धार्मिक भावना नहीं रह जाता, बल्कि एक राजनीतिक अस्त्र बन जाता है – और यही आज हो रहा है।
“घर-घर सुहागरात” की कल्पना – संस्कार का अपमान
अगर हम आज “घर-घर सिंदूर” की बात कर रहे हैं, तो कल “घर-घर सुहागरात” जैसे वाक्य सुनने को मिल सकते हैं। यह कल्पना जितनी अजीब और असंवेदनशील लगती है, उतनी ही खतरनाक भी है। सुहागरात सनातन परंपरा में एक अत्यंत निजी, पवित्र और सांस्कृतिक रूप से गरिमामयी अवधारणा है, जिसे सार्वजनिक विमर्श या राजनीतिक व्यंग्य का विषय बनाना धर्म और संस्कृति – दोनों का घोर अपमान है।
इसका मजाक बनाना न केवल अशोभनीय है, बल्कि उन मूल्यों के प्रति भी असंवेदनशीलता को दर्शाता है, जिन पर यह धर्म टिका हुआ है। यदि समाज इस दिशा में चुपचाप चलता रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी पूरी संस्कृति ही उपहास का केंद्र बन जाएगी।
राजनीति और धर्म का टकराव: किसे मिलेगा नुकसान?
जब कोई नेता या नीति-निर्माता ऐसे नारों को हवा देता है, तो वह सिर्फ चुनावी लाभ नहीं उठाता – वह उन करोड़ों लोगों की भावनाओं को आहत करता है जो अपनी धार्मिक परंपराओं को जीते हैं, उनसे जुड़ाव महसूस करते हैं।
ऐसे नारों की आड़ में असली सवाल यह है कि क्या हम अपनी संस्कृति को इतना सस्ता बना सकते हैं कि उसे किसी भी मंच से प्रचार के लिए इस्तेमाल किया जाए?
समाज को आत्ममंथन की आवश्यकता
आज की सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि समाज आत्ममंथन करे।
क्या हमारी संस्कृति इतनी कमजोर हो गई है कि हर बार राजनीतिक नारे उसमें हस्तक्षेप करें?
क्या हम इतने असंवेदनशील हो गए हैं कि पवित्र प्रतीकों का बाज़ारीकरण सह लें?
और सबसे अहम सवाल – क्या हम इस अपमान के विरुद्ध आवाज़ उठाएँगे?
निष्कर्ष: सनातन धर्म नारा नहीं, जीवन पद्धति है
सनातन धर्म कोई मंचीय नारा नहीं, बल्कि एक उच्च आदर्शों से युक्त जीवन पद्धति है। इसकी आत्मा में मर्यादा, श्रद्धा और आध्यात्मिक उन्नति समाहित है। अगर हम इसे राजनीतिक प्रचार का साधन बना देंगे, तो हम न केवल धर्म का अपमान करेंगे, बल्कि उस समाज का भी अपमान करेंगे जो इस परंपरा को गर्व के साथ जीता है।
अब समय आ गया है कि हम इन सस्ते नारों और प्रचारों के विरुद्ध आवाज उठाएँ। अगर हमें अपनी संस्कृति की गरिमा बचानी है, तो इसे राजनीतिक मंचों से निकालकर फिर से अपने घरों, मंदिरों और जीवन के केंद्र में स्थापित करना होगा।







