Wednesday, November 5, 2025
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संग्राहालय में किया संरक्षित उत्तराखंड में 115 वर्षों के बाद मिली दुर्लभ प्रजाती की बीटल

दुर्लभ प्रजाति की चेफर फल बीटल (प्रोटेटिया एल्बोगुटाटा) की प्रजाति 115 साल बाद उत्तराखंड में रिपोर्ट की गई है। कुमाऊं विश्वविद्यालय के जंतु विज्ञान विभाग के प्राध्यापक और विद्यार्थी को यह सफलता मिली है। विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. मनोज कुमार आर्य के अनुसार चेफर फल प्रजाति के इस बीटल को सर्वप्रथम ब्रिटिश वैज्ञानिक पैरो ने 1910 में फोना ऑफ ब्रिटिश इंडिया में प्रकाशित करने के साथ इसकी आकृतिक विशेषता व देहरादून क्षेत्र में वितरण का जिक्र किया था। इसके बाद से प्राणी सर्वेक्षण संस्थान के सभी कीट वैज्ञानिकों की ओर से वैज्ञानिक पैरो की रिपोर्ट को ही अब तक कीट जैव विविधता दस्तावेजीकरण के रूप में मान्य किया जाता रहा है। तब से लेकर वर्तमान तक इस बीटल की उपस्थिति का कोई भी साक्ष्य या प्रमाण उत्तराखंड में नहीं मिला था। इस बीटल को डीएसबी परिसर के जंतु विज्ञान विभाग के संग्रहालय में संरक्षित किया गया है।

गौलापार और चोरगलिया के जंगलों में मिला
एल्वो यानि सफेद और गुटाटा यानी चित्तीदार से इस प्रजाति को यह नाम मिला। डॉ. मनोज जुलाई में एमएससी जंतु विज्ञान विभाग के विद्यार्थियों के साथ गौलापार और चोरगलिया से सटे जंगलों में कीट विविधता पर सर्वे कर रहे थे। इस बीच एमएससी की छात्रा मान्या विष्ट ने मोबाइल से इस चेफर फल बीटल का चित्र लिया। डॉ. मनोज ने जैव विविधता प्रयोगशाला में और इसकी मोरफोटैक्सनोमी पर शोध कार्य करने के उपरांत प्रमाणित किया कि यह चेफर फल बीटल है। प्रतिष्ठित “जू प्रिंट जरनल” ने इस खोज व शोध को स्वीकृत करते हुए प्रकाशित करने के लिए अपनी स्वीकार्यता प्रदान की है। कश्मीर और राजस्थान में भी रिपोर्ट की गई प्रजाति यह बीटल केवल भारतीय उपमहाद्वीप में ही पाया जाता है। यह कोलियोप्टेरा के अन्तर्गत स्कारोबेइडे परिवार और उपपरिवार सेटोनीनी से संबंधित है। लगभग 4000 ज्ञात प्रजातियों वाले सेटोनीनी उपपरिवार में ऐसे बीटल शामिल हैं। भारत में यह प्रजाति मध्यप्रदेश, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, जूम्म-कश्मीर व राजस्थान में रिपोर्ट की गई है। 1917 में रॉयल एनटोमोलोजिकल सोसाइटी के कीट 66 वैज्ञानिक जैनसन ने इस बीटल को सामान्य वितरित श्रेणी में बताया था। इसके उपरांत भारतीय प्राणी सर्वेक्षण संस्थान के प्रसिद्ध कीट वैज्ञानिक व पूर्व निदेशक डॉ. कैलाश चंद्रा (2012) तथा डॉ. मितल, (1999) डॉ. चटर्जी (2010) ने भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं गढ़वाल हिमालयी क्षेत्र में होना ब्रिटिश वैज्ञानिक पैरो (1910) के अनुसार ही संदर्भित किया। – डॉ. मनोज कुमार आर्य

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